Tuesday 26 March 2013

लिँग भेद के नाम पर उलझना या उलझाना विशुद्ध रुप से समाज के ठेकेदारोँ का कार्य है


आत्मा के स्तर पर लिँग भेद होने का प्रश्न ही नही उठता है
यह बात तब और अधिक समझ मेँ आने लगेगी जैसे जैसे आपकी संवेदनाऐ सुक्ष्म होती जाऐँगी इसके लिऐ सतत अभ्यास की जरुरत होती है
वैसे आत्मा का स्वरुप तो सचिदानन्द ही होता है
शरीर तो वस्त्र मात्र है
स्त्री,
पुरुष
नपुंसक
ये तो शरीर की आकृतियाँ हैँ
शरीर के अन्तराल मेँ चित्तवृत्ति प्रकृति की ओर स्वमेव प्रवाहामान है
लिँग भेद के नाम पर उलझना या उलझाना विशुद्ध रुप से समाज के ठेकेदारोँ का कार्य है इससे मनवता सृष्टि का भला होने वाला नही है
बात जहा तक सामाजिक कार्यो की है तो
सेवा करना लगभग प्रत्येक जीवधारी की मूल वृत्ति होती है
चाहे वह
स्थलचर हो,
जलचर हो,
या
उभयचर हो
सभी अपने समुदाय मेँ किसी विपत्ति या आनन्द के छड़ोँ मे अपने स्तर पर बिना लिँग के भेदभाव किऐ सहयोग मेँ स्वमेव ही प्रस्तुत हो जाते हैँ
चाहेँ तो आप अपने आस पास होने वाली घटना से इस बात को समझ सकतेँ है




आचार्य नीरज

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