आत्मा के स्तर पर लिँग भेद होने का प्रश्न ही नही उठता है
यह बात तब और अधिक समझ मेँ आने लगेगी जैसे जैसे आपकी संवेदनाऐ सुक्ष्म होती जाऐँगी इसके लिऐ सतत अभ्यास की जरुरत होती है
वैसे आत्मा का स्वरुप तो सचिदानन्द ही होता है
शरीर तो वस्त्र मात्र है
स्त्री,
पुरुष
व
नपुंसक
ये तो शरीर की आकृतियाँ हैँ
शरीर के अन्तराल मेँ चित्तवृत्ति प्रकृति की ओर स्वमेव प्रवाहामान है
लिँग भेद के नाम पर उलझना या उलझाना विशुद्ध रुप से समाज के ठेकेदारोँ का कार्य है इससे मनवता व सृष्टि का भला होने वाला नही है
बात जहा तक सामाजिक कार्यो की है तो
सेवा करना लगभग प्रत्येक जीवधारी की मूल वृत्ति होती है
चाहे वह
स्थलचर हो,
जलचर हो,
या
उभयचर हो
सभी अपने समुदाय मेँ किसी विपत्ति या आनन्द के छड़ोँ मे अपने स्तर पर बिना लिँग के भेदभाव किऐ सहयोग मेँ स्वमेव ही प्रस्तुत हो जाते हैँ
चाहेँ तो आप अपने आस पास होने वाली घटना से इस बात को समझ सकतेँ है
आचार्य नीरज
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